In tribal culture, different musical instruments are played during weddings and prayers | शादी-ब्याह, पूजा-पाठ में बजते हैं अलग-अलग वाद्ययंत्र: बस्तर के ट्राइबल कल्चर में सदियों से चली आ रही प्रथा; मेल-फीमेल का जोड़ा होता है नगाड़ा – Jagdalpur News

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April 8, 2025


बस्तर की आदिवासी संस्कृति और परंपरा में वाद्ययंत्रों की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। बिना वाद्ययंत्र के न तो शादी की रस्में होती हैं और न ही पूजा-पाठ। देवी-देवताओं को मनाने से लेकर छठी के कार्यक्रम तक वाद्ययंत्र बेहद जरूरी हैं। यहां तक कि मेला-मड़ई में ना

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खास बात है कि हर एक परंपरा के लिए अलग-अलग तरह के वाद्ययंत्रों का इस्तेमाल किया जाता है। पूजा-पाठ और देवी-देवताओं की आराधना के लिए जिन वाद्ययंत्रों का इस्तेमाल किया जाता है उसका उपयोग शादी या फिर नाच-गान के लिए नहीं होता है। बस्तर में आदिवासी समुदाय में ये परंपरा सदियों से चली आ रही है।

आज हम आपको बस्तर के इन्हीं पारंपरिक वाद्ययंत्रों के बारे में बताएंगे…

पहले जानिए पूजा-पाठ के लिए उपयोग किए जाने वाले वाद्ययंत्र

नगाड़ा।

नगाड़ा।

नगाड़ा – आदिवासी संस्कृति में नगाड़ा बेहद महत्वपूर्ण वाद्ययंत्र है। यह बैल के चमड़े से बनता है। कहा जाता है कि नगाड़ा से निकलने वाली ध्वनि से देवी-देवता प्रसन्न होते हैं। इसे बजाने का तरीका भी अलग होता है। नगाड़ा सिर्फ देवी-देवताओं की आराधना और पूजा-पाठ में ही बजाते हैं।

इसका उपयोग शादी या फिर नाच-गान के लिए नहीं किया जाता है। एक को एंड्रा और एक को माई कहते हैं। यानी एक पुरुष और एक स्त्री है। दो नगाड़ा का एक जोड़ा होता है। यानी इससे निकले वाली ध्वनि सिर्फ देवी-देवता के आराधना के लिए ही होती है।

बड़ी मोहरी।।

बड़ी मोहरी।।

बड़ी मोहरी– मोहरी एक तरह से बांसुरी ही होती है। हालांकि, इसमें से मोटी आवाज निकलती है। इसकी लंबाई करीब 2 से ढाई फीट की होती है। इसका कुछ हिस्सा लकड़ी का और कुछ हिस्सा पीतल-तांबा का होता है। नगाड़ा के साथ ही मोहरी बजाई जाती है। इससे जो धुन निकलती है वह देवी-देवताओं की आराधना के लिए होती है।

तोढ़ी

तोढ़ी

तोढ़ी- ये एक तरह का शंख होता है। गोल और लंबा होता है। पीतल का बनता है। पूजा-पाठ में काम आता है।

तुड़भूड़ी

तुड़भूड़ी

तुड़भूड़ी- इसे बनाने के लिए बकरा या फिर बैल के चमड़े का इस्तेमाल किया जाता है। एक सिंगल नगाड़े का एकदम छोटा रूप होता है। एक हाथ से आसानी से पकड़ते हैं। लकड़ी से बजाते हैं। नगाड़ा के धुन के साथ इसकी ताल-मेल बिठाते हैं।

शादी में ये वाद्ययंत्र जरूरी

ढोल

ढोल

ढोल- सामान्य ढोलक से अलग और बड़ा होता है। इसमें एक तरफ बकरे का और दूसरी तरफ बैल का चमड़ा लगा होता है। ये ढोल शादी या फिर छठी के कार्यक्रमों में बजाया जाता है। पूजा-पाठ या फिर देवी-देवताओं के आराधना के लिए इसका इस्तेमाल नहीं होता है।

टामक

टामक

टामक- यह भी एक तरह से सिंगल नगाड़े का रूप होता है। ढोल के साथ इसे बजाया जाता है। शादी की रस्मों के समय इसका इस्तेमाल किया जाता है।

छोटी मोहरी।

छोटी मोहरी।

छोटी मोहरी- ये बड़े मोहरी का छोटा रूप है। लकड़ी और पीतल से बनता है। इसका इस्तेमाल शादी के रीति-रिवाज में किया जाता है।

नाच-गान के लिए बजाते हैं ये वाद्ययंत्र

मांदरी।

मांदरी।

कुट्टा मांदरी – ज्यादातर अबूझमाड़ के ग्रामीण कुट्टा मांदरी बजाते हैं। ये भी लकड़ी का और बैल के चमड़े का बनता है। एक तरफ से इसका आकार छोटा और दूसरी तरफ से इसका आकार बड़ा होता है। एक तरफ से हाथ और दूसरी तरफ से लकड़ी से बजाते हैं। मेला-मड़ई में नाच-गान के लिए ग्रामीण इसका उपयोग करते हैं।

नारायणपुर के भाटपाल (अबूझमाड़) के रहने वाले ग्रामीण दिनेश सलाम कहते हैं कि ज्यादातर मुरिया जनजाति के लोग इस तरह के ढोल को रखते हैं।

कोटोड़का

कोटोड़का

कोटोड़का – ये सिर्फ लकड़ी का बनता है। चारों तरफ से पैक और इसके बीच में होल रहता है। एक रस्सी के माध्यम से इसे गले से कमर तक लटकाकर रखते हैं। कमर के पास रखकर इसे 2 छोटी लकड़ी से बजाते हैं। करीब डेढ़ फीट चौड़ा होता है। इसका इस्तेमाल सिर्फ शादी में मांदर की थाप के साथ किया जाता है।

गौर नाचा ढोल।

गौर नाचा ढोल।

गौर नाचा ढोल- बस्तर की आदिवासी संस्कृति में गौर नाचा ढोल का एक विशेष महत्व है। आदिवासी समुदाय के लोग मेला से लेकर किसी भी पारंपरिक कार्यक्रमों में गौर नाच करते हैं। इसमें एक बड़ा सा ढोल होता है। जिसकी लंबाई करीब 5 से 6 फीट की होती है। ये भी बैल के चमड़े से बनता है। वहीं गौर कर सिंग से मुकुट बनता है। जिसे पहनकर नाचते हैं। इसे ही गौर नाचा और गौर ढोल कहा जाता है।

बस्तर पंडुम में दिखाई वाद्ययंत्रों की झलक

बस्तर पंडुम में बस्तर के पारंपरिक वाद्ययंत्रों की झलक दिखाई गई थी। बस्तर के हाट कचोरा काली मंदिर के लोग वाद्ययंत्र लेकर पहुंचे थे। यहां के रहने वाले काली दास कश्यप, मनीराम कश्यप और राम दास कश्यप ने बस्तर के पारंपरिक वाद्ययंत्रों की जानकारी दी है। उन्होंने कहा कि, बस्तर में बैल और बकरे के चमड़े से ही वाद्ययंत्र बनते हैं।

बस्तर के कल्चर में वाद्ययंत्रों की बड़ी भूमिका है। इनके बिना न तो कोई पूजा होती है और न ही कोई अन्य त्योहार मनाए जाते हैं। काली दास का कहना है कि, नगाड़े का जोड़ा होता है। मेल-फीमेल कर नाम पर नाम होता है।



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